अध्याय-11 मानव नैत्र तथा रंग-बिरंगा संसार
मानव नैत्र-
मानव नैत्र एक केमरे की भांति होता है । नैत्र का लैंस एक प्रकाश सुग्राही परदे पर या दृष्टिपटल पटल(रेटिना) पर प्रतिबिंब बनाता है । इसके निम्न भाग होते है –
1. कॉर्निया-
इसे स्वछ्चमंडल भी कहते है । यह पारदर्शी झिल्ली होती है ,जिसमें से प्रकाश नेत्र में प्रवेश करता है । नेत्र में प्रवेश करने वाली अधिकांश प्रकाश किरणों का अपवर्तन कॉर्निया के बाहरी पृष्ठ पर हो जाता है । कॉर्निया में रक्त कोशिकाएँ नहीं होती है ,इसी कारण इसका प्रत्यारोपण सर्वाधिक सरल है ।
2. जल द्रव-
कॉर्निया के पीछे एक छोटा कोष्ठ होता है जिसमें पारदर्शी द्रव भरा होता है । इसे जल द्रव कहते है ।
3. काचाभ द्रव-
लैंस के पीछे एक बड़ा कोष्ठ होता है जिसे विट्रस चैम्बर(कोष्ठ) कहते है , जिसमें भरा द्रव काचाभ द्रव कहलाता है ।
4. परितारिका( आइरिस)-
इसे आइरिस भी कहते है । इसके बीच में एक छोटा सा छिद्र होता है जिसे पुतली(प्युपिल अथवा नेत्र तारा) कहते है । पुतली आवश्यकता अनुसार छोटी या बड़ी होती रहती है । अधिक प्रकाश पड़ने पर आइरिस फैल जाती है तथा पुतली छोटी हो जाती है ।
कम प्रकाश पड़ने पर आइरिस सिकुड़ जाती है तथा पुतली बड़ी हो जाती है । इस प्रकार पुतली नेत्र में प्रवेश करने वाली प्रकाश की मात्रा का नियंत्रण करती है ।
5. नेत्र लैंस-
नेत्र लैंस सिलियरी (पक्ष्माभी) मांस पेशियों की सहायता से लटका रहता है । यह क्रिस्टलीय तथा पारदर्शी होता है । यह केवल विभिन्न दूरियों पर रखी वस्तुओं को रेटिना पर फोकसित करने के लिए आवश्यक फोकस दूरी में सूक्ष्म समायोजन करता है । यह रेटिना पर किसी वस्तु का उल्टा तथा वास्तविक प्रतिबिंब बनाता है ।
6. दृष्टिपटल(रेटिना)-
इसे रेटिना भी कहते है । इसमें उपस्थित प्रकाश सुग्राही कोशिकाएँ प्रदीप्त होने पर सक्रिय हो जाती है और विद्युत सिग्नल उत्पन्न करती है । ये सिग्नल दृक तंत्रिका के द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचते है जहाँ इनका संसोधन होता है और उपयुक्त संकेत मिलने पर वस्तु दिखाई देती है ।
⦁ मानव नेत्र द्वारा प्रतिबिंब बनना-
नेत्र के सामने स्थित किसी वस्तु से चलने वाली प्रकाश की किरणें पहले जलीय द्रव ,फिर नेत्र लैंस तथा अन्त में काचाभ द्रव से अपवर्तित होकर रेटिना पर टकराती है । चूंकि मानव नेत्र एक उत्तल लैंस की भांति होता है । अतः रेटिना पर बनने वाला प्रतिबिंब उल्टा तथा वास्तविक होता है । इस प्रतिबिंब का संकेत दृक तंत्रिकाओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचता है और मस्तिष्क इनका संसोधन करता जिससे रेटिना पर बना प्रतिबिंब ,मस्तिष्क द्वारा अनुभव के आधार पर मानव को सीधा दिखाई पड़ता है ।
⦁ नेत्र की समंजन क्षमता(power of accomodation of eye)-
नेत्र की आवश्यकतानुसार ,नेत्र लैंस की फोकस दूरी बदलने की क्षमता को नेत्र की समंजन क्षमता कहते है ।
उम्र के साथ-साथ आँख की समंजन क्षमता घटती जाती है क्योंकि उम्र बढ़ने पर नेत्र की नम्यता (flexibility) कम हो जाती है ।
⦁ आँख का दूर बिंदू(F)-
आँख से अधिकतम दूरी पर स्थित वह बिंदू जिस पर रखी वस्तु को आँख स्पष्ट रूप से देख सके ,आँख का दूर बिंदू कहलाता है । स्वस्थ आँख के लिए यह बिंदू अनंत पर होता है ।
⦁ आँख का निकट बिंदू(N)-
आँख से न्यूनतम दूरी पर स्थित वह बिंदू जिस पर रखी वस्तु को आँख स्पष्ट रूप से देख सके ,आँख का निकट बिंदू कहलाता है । स्वस्थ आँख के लिए यह 25 cm. होता है । इस दूरी को स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहते है ।
⦁ दृष्टि विस्तार-
निकट बिंदू(N) तथा दूर बिंदू(F) के बीच की दूरी को ही दृष्टि विस्तार कहते है । स्वस्थ आँख के लिए यह 25 cm. से अनंत दूरी तक होता है ।
⦁ मोतियाबिंद(Cataract)-
कभी-कभी अधिक आयु के कुछ व्यक्तियों के नेत्र का क्रिस्टलीय लैंस दूधिया या धुँधला हो जाता है ,इस स्थिति को ही मोतियाबिंद कहते है । इसके कारण नेत्र की दृष्टि में कमी या पूर्ण रूप से क्षय हो जाता है । मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा के पश्चात दृष्टि का वापस लौटना संभव है ।
⦁ नेत्र दोष एवं उनके निवारण-
1. निकट दृष्टि दोष(Myopia)-
इस दोष में मनुष्य निकट की वस्तु को तो स्पष्ट देख लेता है परन्तु एक निश्चित बिन्दू के बाद, वह दूर की वस्तु को स्पष्ट नहीं देख पाता है अथवा दिखाई नहीं देती है ।
कारण- इस दोष के निम्न कारण है-
i) नेत्र लैंस की वक्रता बढ़ जाए जिससे उसकी फोकस दूरी कम हो जाती है ।
ii) नेत्र गोलक व्यास बढ़ जाए अथवा नेत्र गोलक लंबा हो जाए जिससे नेत्र लैंस व रेटिना के बीच की दूरी बढ़ जाती है ।
अतः अनन्त से चलने वाली प्रकाश की किरणें इस दोष युक्त नेत्र लैंस से अपवर्तित होकर रेटिना से पहले ही अथवा रेटिना के निकट किसी बिन्दू P पर फोकस हो जाती है अथवा मिलती है ।
इस दोष युक्त नेत्र का दूर बिन्दू (F) अनन्त से खिसकर कम दूरी पर स्थित हो जाता है ।
निवारण-
निकट दृष्टि दोष को दूर करने के लिए ऐसे अवत्तल लैंस युक्त चश्में को आँख के सामने रख देते है जिससे अनन्त से आने वाली प्रकाश किरणें अपवर्तन के पश्चात रेटिना पर फोकस हो जाती है अथवा रेटिना पर मिलती है । जिससे प्रतिबिंब रेटिना पर बनता है ।
2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia)-
दूर दृष्टि दोष मानव नेत्र का वह दोष है जिसमें मनुष्य दूर स्थित वस्तु को तो स्पष्ट देख सकता है परन्तु उसे पास में रखी वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है ।
कारण- इसके निम्न कारण है-
i) नेत्र लैंस की वक्रता कम हो जाए जिससे उसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है ।
ii) नेत्र गोले का व्यास कम हो जाए अथवा नेत्र गोलक छोटा हो जाए जिससे नेत्र लैंस व रेटिना के बीच की दूरी कम हो जाती है ।
अतः निकट बिन्दू से चलने वाली प्रकाश किरणें इस दोष युक्त नेत्र लैंस से अपवर्तित होकर रेटिना के पश्चात किसी बिन्दू S पर मिलती है ।
इस दोष युक्त नेत्र का निकट बिन्दू (N) निकट से हटकर अधिक दूरी पर स्थित हो जाता है ।
निवारण-
दूर दृष्टि दोष को दूर करने के लिए ऐसे उत्तल लैंस युक्त चश्में को आँख के सामने रख देते है जिससे निकट से आने वाली प्रकाश किरणें अपवर्तन के पश्चात रेटिना पर फोकस हो जाती है अथवा रेटिना पर मिलती है । जिससे प्रतिबिंब रेटिना पर बनता है ।
3. जरा दृष्टि दोष-
आयु बढ़ने के साथ-साथ नेत्र की समंजन क्षमता कम हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप आँख का दूर बिन्दू नेत्र के निकट तथा आँख का निकट बिन्दू नेत्र से दूर विस्थापित हो जाता है । इसलिए नेत्र न तो अधिक दूरी वाली वस्तु को और न ही बहुत पास वाली वस्तुओं को स्पष्ट देख पाता है । नेत्र का यह दोष जरा दृष्टि दोष कहलाता है ।
कारण-
जरा दृष्टि दोष का मुख्य कारण आयु बढ़ने के साथ-साथ नेत्र की समंजन क्षमता कम हो जाना है ।
निवारण-
जरा दृष्टि दोष के निवारण के लिए व्यक्ति को द्विफोकस लैंसों से युक्त चश्में का प्रयोग करना पड़ता है । इन लैंसों का ऊपरी भाग अवत्तल लैंस की तरह तथा नीचे का भाग उत्तल लैंस की तरह कार्य करता है ।
प्रिज्म से प्रकाश का अपवर्तन-
चित्रानुसार ABC काँच का एक प्रिज्म है । इसके तल AB तथा AC पर प्रकाश का अपवर्तन दर्शाया गया है । माना एक प्रकाश किरण चित्रानुसार प्रिज्म के पृष्ठ AB पर कोण i (आपतन कोण) पर आपतित तथा कोण r (अपवर्तन कोण) पर अपवर्तित होती है । यह अपवर्तित किरण पुनः प्रिज्म के पृष्ठ AC पर आपतित होती है तथा कोण e ( निर्गत कोण ) पर पारगमित होती है । आपतित किरण PQ को आगे बढ़ाने पर तथा निर्गत किरण RS को पीछे बढ़ाने पर दोनों G बिन्दू पर मिलती है और इन दोनों किरणों के बीच बना कोण विचलन कोण कहलाता है । इसे से प्रदर्शित करते है ।
इस प्रकाश प्रिज्म से प्रकाश का अपवर्तन होता है ।
⦁ प्रिज्म द्वारा प्रकाश का वर्ण विक्षेपण(परिक्षेपण)-
न्यूटन के अनुसार सूर्य का प्रकाश कई रंगों के प्रकाश से मिलकर बना होता है । जब श्वेत प्रकाश की कोई बारीक किरण पुंज किसी प्रिज्म से होकर गुजारी जाती है तो प्रिज्म के दूसरी ओर रखे सफेद पर्दे पर प्रकाश की एक रंगीन पट्टी दिखाई देती है । इस रंगीन पट्टी को प्रकाश का स्पेक्ट्रम कहते है । इस स्पेक्ट्रम में ऊपरी सिरा लाल तथा निचला सिरा बैंगनी होता है और शेष रंग (नीला, आसमानी , हरा ,जामुनी, पीला) इनके बीच में अविरतता से फैले होते है ।
इस प्रकाश प्रिज्म से होकर श्वेत प्रकाश के गुजरने पर उसका अपने अवयवी रंगों में विभाजित होने की प्रकाशिक घटना को , प्रकाश का वर्ण विक्षेपण कहते है ।
⦁ श्वेत प्रकाश के स्पेक्ट्रम का पुनर्योजन-
चित्रानुसार जब दो प्रिज्मों को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है कि उनके फलक समान्तर हो जाए । जब पहले प्रिज्म से श्वेत प्रकाश गुजरता है तो यह रंगीन स्पेक्ट्रम बनाता है और यदि इस स्पेक्ट्रम को उल्टे रखे प्रिज्म से गुजारते है तो पुनः श्वेत प्रकाश प्राप्त होता है ,इसे ही श्वेत प्रकाश के स्पेक्ट्रम का पुनर्योजन कहते है ।
⦁ इद्रधनुष का बनना-
इंद्रधनुष ,वर्षा के पश्चात आकाश में वर्षा की बूँदों में दिखाई देने वाला प्राकृतिक स्पेक्ट्रम है । जब प्रकाश चित्रानुसार वर्षा की बूँद में प्रवेश करता है तो यह अपवर्तित व विक्षेपित (अलग-अलग रंगों में बंटना ) होता है । अब यह वर्षा की बूँद के आन्तरिक पृष्ठ से टकराता है और इसका आन्तरिक परावर्तन होता है । अब यह वर्षा की बूँद से बाहर निकलते समय पुनः अपवर्तित होता है और प्रेक्षक को इन्द्रधनुष दिखाई देता है । इन्द्र धनुष देखने के लिए पीठ को सूर्य की ओर होना चाहिए ।
⦁ तारों का टिमटिमाना-
जब तारों का प्रकाश पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करता है तो इसका लगातार अपवर्तन होता रहता है ,क्योंकि ऊपरी वायुमण्डल से नीचे पृथवी सतह तक परतों की संघनता अथवा घनत्व बढ़ता जाता है । अतः तारे के प्रकाश का अनेक बार अपवर्तन होने के कारण वह अभिलम्ब की ओर झुकता या मुड़ता जाता है । जिससे तारे की आभासी स्थिति बनती है जो वास्तविक स्थिति से कुछ ऊँचाई पर प्रतीत होती है और क्षितिज से देखने पर तारे टिमटिमाते हुए प्रतीत होते है ।
⦁ अग्रिम सूर्योदय तथा विलंबित सूर्यास्त-
वायुमण्लीय अपवर्तन के कारण सूर्य हमें वास्तविक सूर्योदय से लगभग 2 मिनिट पूर्व दिखाई देने लगता है तथा वास्तविक सूर्यास्त के लगभग 2 मिनिट पश्चात तक दिखाई देता है । वास्तविक सूर्योदय से तात्पर्य सूर्य द्वारा वास्तव में क्षितिज को पार करना है तथा वास्तविक सूर्यास्त का तात्पर्य सूर्य का क्षितिज के नीचे जाना है । वास्तविक सूर्योदय व आभासी सूर्योदय अथवा वास्तिक सूर्यास्त व आभासी सूर्यास्त के बीच का समय अंतराल लगभग दो मिनिट होता है । इस प्रकार दिन की अवधि में 4 मिनिट की वृद्धि हो जाती है । इसी परिघटना के कारण ही सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य की चक्रिका चपटी प्रतीत होती है ।
⦁ प्रकाश का प्रकीर्णन-
जब प्रकाश की किरणें किसी वस्तु से टकराकर अपनी दिशा बदल लेती है परन्तु परावर्तन के नियमों का पालन नहीं करती हैं तो इस प्रकाशिक घटना को प्रकाश का प्रकीर्णन कहते है । टिण्डल नामक वैज्ञानिक ने इसकी खोज की ,इसलिए इसे टिण्डल प्रभाव भी ककहते है ।
⦁ आकाश का रंग नीला होना –
जब सूर्य का श्वेत प्रकाश वायुमण्डल से गुजरता है तो वायु के अणु छोटी की किरणों (जैसे नीली, बैंगनी ) का प्रकीर्णन अधिक मात्रा में करते है जबकी बड़ी
वाली लाल रंग की प्रकाश किरणों का प्रकीर्णन कम मात्रा में होता है । अतः प्रकीर्णन के पश्चात नीली व बैंगनी रंग की प्रकाश किरणें पृथ्वी तक अधिक मात्रा में पहुँचती है । जिसके कारण ऊपर का आकाश नीला दिखाई देता है ।
यदि पृथवी के चारों ओर वायुमण्डल नहीं होता तो प्रकीर्णन ना होने के कारण आकाश काला दिखाई देता ।
⦁ उगते व छिपते सूर्य का लाल (रक्ताभ) दिखाई देना –
सूर्योदय व सूर्यास्त के समय प्रकाश की किरणें अधिक दूरी तय करके हमारी आँख तक पहुँचती है । इन किरणों के मार्ग में धूल के कणों तथा वायु अणुओं द्वारा प्रकाश किरणों का अधिक प्रकीर्णन होता है ।
इस प्रकीर्णन के कारण नीली व बैंगनी किरणें निकल (बिखर) जाती है क्योंकि इनका प्रकीर्णन सबसे अधिक होता है । इस प्रकार हमारी आँख तक लाल किरणें ही पहुँच पाती है । फलस्वरूप सूर्य उदय व अस्त होते समय लाल दिखाई देता है ।