क्लास-10 अध्याय-13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव


विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव की खोज सन् 1820 में वैज्ञानिक हैंस क्रिश्चियन ऑर्स्टेड ने की । इन्होंने ने अकस्मात् ही देखा कि धातु के चालक से विद्युत धारा प्रवाहित कराने पर दिक्सूचक सुई विक्षेपित होती है । इन्हीं के सम्मान में चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता का मात्रक ऑर्स्टेड रखा गया ।

⦁ दिक्यूचक सूई- यह एक छोटी छड़ चुंबक के समान होती है । यह एक ऐसी युक्ति होती है जो दिशा का ज्ञान कराती है । चुंबकीय दिक्सूचक उत्तरी ध्रुव दिशा की ओर संकेत करता है । यह यंत्र क्षैतिज दिशा का ज्ञान करवाता है ।
“समान ध्रुवों में परस्पर प्रतिकर्षण और असमान ध्रुवों में परस्पर आकर्षण होता है” ,यह चुंबकीय दिक्सूचक का सिद्धांत है ।
⦁ दिक्सूचक सूई का विक्षेपित होना –
यह एक छोटी छड़ चुंबक के समान होती है । जब इसे धातु के तार में प्रवाहित विद्युत धारा के समीप लाते है तो विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव के कारण दिक्सूचक सूई पर एक बलयुग्म कार्य करता है , जिसके कारण दिक्सूचक सूई में विक्षेप उत्पन्न होता है ।

⦁ चुंबक-

वह पदार्थ या वस्तु जो चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करे और अन्य चुंबक या चुंबकीय पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित या प्रतिकर्षित करे ,उसे चुंबक कहते है ।
चुंबक के दो ध्रुव होते है –
1. उत्तर दिशा की ओर संकेत करने वाले ध्रुव को उत्तरोमुखी ध्रुव अथवा उत्तर ध्रुव (N) कहते है ।
2. दक्षिण दिशा की ओर संकेत करने वाले ध्रुव को दक्षिणोमुखी ध्रुव अथवा दक्षिण ध्रुव (S) कहते है ।
⦁ चुंबकीय क्षेत्र- किसी चुंबक के चारों ओर का वह क्षेत्र जिसमें उसके बल का संसूचन किया जाता है, उस चुंबक का चुंबकीय क्षेत्र कहलाता है ।
⦁ चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का निरूपण-

ड्रॉइंग बोर्ड पर एक सफेद कागज लगाते है । इसके बीचोंबीच एक छड़ चुंबक को रखते है । अब लौह चूर्ण को चुंबक के चारों ओर समान रूप से छितरावक की सहायता से छितराते (बिखराते) हैं तो हम देखते हैं कि लौह चूर्ण स्वयं चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के अनुदिश संरेखित हो जाताहै ,इसे ही चुंबकीय चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं निरूपण कहते है ।
⦁ चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के गुण या विशेषताएं या गुणधर्म-

1. चुंबक के बाहर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की ओर होती है ।
2. चुंबक के भीतर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव की ओर होती है ।
3. ये सदैव बंद वक्र बनाती है अर्थात् ये वक्राकार होती है ।
4. ये परस्पर एक दूसरे को कभी नहीं काटती है ।
5. जहाँ चुंबकीय क्षेत्र रेखाएं अपेक्षाकृत अधिक निकट होती है ,वहाँ चुंबकीय क्षेत्र अधिक प्रबल होता है ।
6. जहाँ चुंबकीय क्षेत्र रेखाएं अपेक्षाकृत दूर-दूर होती है ,वहाँ चुंबकीय क्षेत्र दुर्बल होता है ।
⦁ दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम-
जब दक्षिण-हस्त का अंगुठा विद्युत धारा की दिशा में होता है तो अंगुलियाँ चालक के चारों ओर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा में लिपट जाती है ,इसे ही दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम कहते है ।

इस प्रकार हम दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम की सहायता से किसी धारावाही चालक में उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा ज्ञात कर सकते है ।
⦁ किसी विद्युत धारावाही चालक के कारण चुंबकीय क्षेत्र- किसी धारावाही चालक में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा या पैटर्न को ज्ञात किया जा सकता है । इसे हम निम्न क्रियाकलापों (प्रयोगों) की सहायता से समझ सकते है –
1. सीधे चालक से विद्युत धारा प्रवाहित होने के कारण चुंबकीय क्षेत्र-

किसी सीधे धारावाही चालक तार के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र संकेंद्र वृतों के रूप में होता है । जब चालक तार समीप वाले संकेंद्र वृत के किसी बिन्दू P पर दिक्सूचक को रखते है तो दिक्सूचक अधिक विक्षेप उत्पन्न करता है लेकिन जब दिक्सूचक को अधिक दूरी पर स्थित संकेंद्र वृत के किसी बिन्दू Q पर रखते है तो दिक्सूचक का विक्षेप घट जाता है । अतः हम कह सकते है कि चालक तार के समीप उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र प्रबल होता है व दूर जाने पर घटता जाता है क्योंकि चालक तार के समीप संकेंद्र वृत छोटे व पास-पास होते है जबकि दूर स्थित संकेंद्र वृत साइज में बड़े व दूर-दूर होते है ।
2. विद्युत धारवाही वृताकार पाश के कारण चुंबकीय क्षेत्र –

दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम की सहायता से यदि दाहिने हाथ की अंगुलियाँ तार के ऊपर इस प्रकार लपेटी जाएँ कि अंगुठा तार में प्रवाहित धारा की दिशा में हो , तब अंगुलियों के मुड़ने की दिशा चुंबकीय क्षेत्र को प्रदर्शित करेगी ।
अतः वृताकार पाश के अन्दर चुंबकीय क्षेत्र मेज के तल के लम्बवत् तथा उर्ध्वाधरतः नीचे की दिशा में है जबकी पाश के बाहर चुंबकीय क्षेत्र मेज के लम्बवत् तथा उर्ध्वाधरतः ऊपर की ओर क्रियाशील होगा ।
3. परिनालिका में प्रवाहित विद्युत धारा के कारण चुंबकीय क्षेत्र –

पास-पास लिपटे विद्युतरोधी ताँबे के तार की बेलन की आकृति की अनेक फेरों वाली कुंडली को परिनालिका कहते है ।
किसी विद्युत धारावाही परिनालिका के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का पैटर्न चित्र में दर्शाए गए पैटर्न के समान होता है । यह पैटर्न छड़ चुंबक के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के पैटर्न के समान होता है ।
परिनालिका के भीतर चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ समांतर सरल रेखाओं की भाँती होती है । यह निर्दिष्ट करता है कि किसी परिनालिका के भीतर सभी बिन्दूओं पर चुंबकीय क्षेत्र समान होता है अर्थात् परिनालिका के भीतर एकसमान चुंबकीय क्षेत्र होता है ।

 विद्युत चुंबक –

परिनालिका के भीतर उत्पन्न प्रबल चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग किसी चुंबकीय पदार्थ जैसे नर्म लोहे को परिनालिका के भीतर रखकर चुंबक बनाने में किया जा सकता है । इस प्रकार बने चुंबक को विद्युत चुंबक कहते है ।

⦁ चुंबकीय क्षेत्र में किसी विद्युत धारावाही चालक पर चुंबकीय बल-

चुंबकीय क्षेत्र में किसी विद्युत धारावाही चालक पर लगने वाले चुंबकीय बल को फ्लेमिंग के वामहस्त (बायाँ हाथ ) नियम की सहायता से ज्ञात कर सकते है ।

इस नियम के अनुसार –
1. बाएँ हाथ की तर्जनी, मध्यमा व अंगुठे को इस प्रकार फेलाते हैं कि तीनों परस्पर लंबवत रहे ।
2. अंगुठा चुंबकीय बल को , तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र व मध्यमा विद्युत धारा की दिशा को दर्शाते है ।
इस ही वाम हस्त का नियम कहते है ।

⦁ फ्लेमिंग का दक्षिण हस्त नियम –

इस नियम के अनुसार-
1.दाएँ हाथ तर्जनी, मध्यमा व अंगुठे को इस प्रकार फेलाते हैं कि तीनों परस्पर लंबवत रहे ।
2. तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र को , मध्यमा चालक में प्रेरित विद्युत धारा तथा अंगुठा चालक की गति की दिशा को दर्शाते है ।

⦁ गैल्वेनोमीटर-

यह एक ऐसा उपकरण है जो किसी परिपथ में विद्युत धारा की उपस्थिति को संसूचित करता है ।

⦁ विद्युत मोटर-

विद्युत मोटर एक ऐसी युक्ति होती है जिसमें विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरण होता है ।
विद्युत मोटर का उपयोग विद्युत पंखों ,रेफ्रिजरेटरों, विद्युत मिश्रकों ,वॉशिंग मशीन, कंप्यूटरों तथा MP-3 प्लेयरों आदि में किया जाता है ।

विद्युत मोटर की कार्य प्रणाली –

विद्युत मोटर में विद्युतरोधी पदार्थ की एक आयताकार कुंडली होती है,जो चुंबकीय क्षेत्र के दो ध्रुवों के मध्य इस प्रकार व्यवस्थित होती है कि इसकी AB व CD भुजाऐं चुंबकीय क्षेत्र के लंबवत रहे । कुंडली के दोनों सिरे विभक्त वलयों के दो अर्धभागों P व Q से संयोजित होते है । इन अर्धभागों की भीतरी सतह विद्युतरोधी होती है तथा धुरी से जुड़ी होती है । P तथा Q क्रमशः स्थिर चालक ब्रशों X व Y से संपर्कित रहते है । दोनों चालक ब्रश X व Y विद्युत स्रोत( विद्युत बैट्री) से जुड़े होते है ।
जब धारा प्रवाहित होती है तो यह X से होते हुए भुजा AB में पहुँचती है ,तो इस भुजा पर नीचे की ओर बल आरोपित होता है । आरोपित बल की दिशा फ्लेमिंग के वाम हस्त नियम की सहायता से ज्ञात करते है । जब धारा भुजा CD में आती है तो धारा की दिशा बदल जाती है जिससे लगने वाले बल की दिशा परिवर्तित होकर ऊपर की ओर हो जाती है ।
इस प्रकार किसी अक्ष पर घूमने के लिए स्वतंत्र कुंडली तथा धुरी वामावर्त घूर्णन करते है । आधे घूर्णन में Q का संपर्क ब्रश X से तथा P का संपर्क ब्रश Y से हो जाता है । अतः कुंडली में विद्युत धारा उत्क्रमित होकर पथ DCBA के अनुदिश प्रवाहित होती है जिससे AB व CD भुजाओं पर लगने वाले बलों की दिशा भी उत्क्रमित हो जाती है । अतः कुंडली तथा धुरी उसी दिशा में अब आधा घूर्णन और पूरा कर लेती है । प्रत्येक आधे घूर्णन के पश्चात विद्युत धारा के उत्क्रमित होने का क्रम बार-बार चलता रहता है । जिसके फलस्वरूप कुंडली तथा धुरी का निरंतर घूर्णन होता रहता है ।

⦁ व्यवसायिक विद्युत मोटरों में निम्न परिवर्तन किये जाते है –

1. स्थायी चुंबकों के स्थान पर विद्युत चुंबक प्रयोग किये जाते है ।
2. विद्युत धारावाही कुंडली में फेरों की संख्या अधिक होती है ।
3. कुंडली नर्म लोहे क्रोड पर लपेटी जाती है ।

⦁ दिक् परिवर्तक –

वह युक्ति जो परिपथ में विद्युत धारा के प्रवाह को उत्क्रमित कर देती है , उसे दिक् परिवर्तक कहते है । जैसे विद्युत मोटर में विभक्त वलय दिक् परिवर्तक का कार्य करते है ।

⦁ आर्मेचर-

नर्म लौह क्रोड व उस पर लपेटी गई कुंडली दोनों मिलकर आर्मेचर कहलाते है ।

⦁ प्रत्यावर्ती धारा –

ऐसी विद्युत धारा जो समान काल -अंतरालों के पश्चात अपनी दिशा में परिवर्तन कर लेती है ,उसे प्रत्यावर्ती धारा (ac) कहते है । जो युक्ति इस धारा को उत्पन्न करती है उसे ac जनित्र कहते है ।

⦁ दिष्ट धारा –

ऐसी विद्युत धारा जो समय के साथ अपनी दिशा परिवर्तित नहीं करती है ,उसे दिष्ट धारा (dc) कहते है । जो युक्ति इस धारा को उत्पन्न करती है उसे dc जनित्र कहते है ।

.विद्युत जनित्र- विद्युत जनित्र में यांत्रिक ऊर्जा का उपयोग चुंबकीय क्षेत्र में रखे किसी चालक को घूर्णी गति प्रदान करने में किया जाता है , जिसके फलस्वरूप विद्युत धारा उत्पन्न होती है । इसे विद्युत जनित्र का सिद्धांत कहते है ।
विद्युत जनित्र की कार्य प्रणाली –

चित्रानुसार विद्युत जनित्र में एक आयताकार कुंडली ABCD होती है, जिसे स्थायी चुंबक के दो ध्रुवों के बीच रखा जाता है । इस कुंडली के दोनों सिरे वलय R1 व R2 से संयोजित होते है । दोनों वलय धुरी के साथ संयोजित होती है । वलय R1 व R2 क्रमशः दो स्थिर चालक ब्रशों B1 व B2 से संपर्कित रहती है और दोनों ब्रशों को गैल्वेनोमीटर से संपर्कित कर दिया जाता है ।
जब धुरी को बाहरी यांत्रिक कार्य की सहायता से घुमाया जाता है तो कुंडली की AB भुजा ऊपर की ओर के व CD भुजा नीचे की ओर के चुंबकीय क्षेत्र को काटती हुई गति करती है । फ्लेमिंग के दक्षिण- हस्त नियम की सहायता से दोनों भुजाओं में धारा की दिशा ज्ञात की जा सकती है । अतः धारा ABCD दिशा में प्रवाहित होगी ।
अर्धघूर्णन के पश्चात AB भुजा नीचे की ओर तथा CD भुजा ऊपर की ओर गति करेगी, जिससे कुंडली में प्रवाहित होने वाली धारा की दिशा परिवर्तित होकर DCBA के अनुदिश हो जाती है ।
अतः इस प्रकार प्रत्येक आधे घूर्णन के पश्चात विद्युत धारा की दिशा क्रमिक(लगातार) बदलती रहती है । और यह धारा गैल्वेनोमीटर में विक्षेप उत्पन्न करती है ।
यदि कुंडली में फेरों की संख्या बढ़ा दी जाए है तो शक्तिशाली विद्युत धारा उत्पन्न की जा सकती है ।
ऐसी विद्युत धारा जो अपनी दिशा समय के साथ परिवर्तन कर लेती है ,उसे प्रत्यावर्ती धारा (ac) कहते है । जो युक्ति इस धारा को उत्पन्न करती है उसे प्रत्यावर्ती जनित्र( ac जनित्र) कहते है ।

⦁ वैद्युत चुंबकीय प्रेरण- वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी चालक के परिवर्तित चुंबकीय क्षेत्र के कारण अन्य चालक में विद्युत धारा प्रेरित होती है , उसे वैद्युत चुंबकीय प्रेरण कहते है ।

अथवा

⦁ घरेलु विद्युत परिपथ –
हम अपने घरों में विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति मुख्य तारों (जिसे मेंस भी कहते है ।) से प्राप्त करते है । घरों में विद्युत ऊर्जा आपूर्ति के इस परिपथ को ही घरेलु विद्युत परिपथ कहते है ।

घरेलु विद्युत परिपथ में तीन प्रकार के तार काम आते है –
1. विद्युतन्मय तार (धनात्मक तार)- इस तार पर लाल रंग का विद्युतरोधी आवरण होता है ।
2. उदासीन तार(ऋणात्मक तार) – इस तार पर काले रंग का विद्युतरोधी आवरण होता है ।
3. भूसंपर्कित तार – इस तार पर हरे रंग का विद्युतरोधी आवरण होता है । इस तार को घर के निकट भूमि के भीतर बहुत गहराई पर स्थित धातु की प्लेट से संयोजित करते है । इस तार का उपयोग विशेषकर विद्युत इस्त्री ,टोस्टर, मेज पंखा ,रेफ्रिजरेटर आदि की सुरक्षा के उपाय के रूप में किया जाता है ।



अध्याय-11 मानव नैत्र तथा रंग-बिरंगा संसार

  

अध्याय-11 मानव नैत्र तथा रंग-बिरंगा संसार 



मानव नैत्र-
मानव नैत्र एक केमरे की भांति होता है । नैत्र का लैंस एक प्रकाश सुग्राही परदे पर या दृष्टिपटल पटल(रेटिना) पर प्रतिबिंब बनाता है । इसके निम्न भाग होते है –

1. कॉर्निया-
इसे स्वछ्चमंडल भी कहते है । यह पारदर्शी झिल्ली होती है ,जिसमें से प्रकाश नेत्र में प्रवेश करता है । नेत्र में प्रवेश करने वाली अधिकांश प्रकाश किरणों का अपवर्तन कॉर्निया के बाहरी पृष्ठ पर हो जाता है । कॉर्निया में रक्त कोशिकाएँ नहीं होती है ,इसी कारण इसका प्रत्यारोपण सर्वाधिक सरल है ।
2. जल द्रव-
कॉर्निया के पीछे एक छोटा कोष्ठ होता है जिसमें पारदर्शी द्रव भरा होता है । इसे जल द्रव कहते है ।
3. काचाभ द्रव-
लैंस के पीछे एक बड़ा कोष्ठ होता है जिसे विट्रस चैम्बर(कोष्ठ) कहते है , जिसमें भरा द्रव काचाभ द्रव कहलाता है ।
4. परितारिका( आइरिस)-
इसे आइरिस भी कहते है । इसके बीच में एक छोटा सा छिद्र होता है जिसे पुतली(प्युपिल अथवा नेत्र तारा) कहते है । पुतली आवश्यकता अनुसार छोटी या बड़ी होती रहती है । अधिक प्रकाश पड़ने पर आइरिस फैल जाती है तथा पुतली छोटी हो जाती है ।

कम प्रकाश पड़ने पर आइरिस सिकुड़ जाती है तथा पुतली बड़ी हो जाती है । इस प्रकार पुतली नेत्र में प्रवेश करने वाली प्रकाश की मात्रा का नियंत्रण करती है ।

5. नेत्र लैंस-
नेत्र लैंस सिलियरी (पक्ष्माभी) मांस पेशियों की सहायता से लटका रहता है । यह क्रिस्टलीय तथा पारदर्शी होता है । यह केवल विभिन्न दूरियों पर रखी वस्तुओं को रेटिना पर फोकसित करने के लिए आवश्यक फोकस दूरी में सूक्ष्म समायोजन करता है । यह रेटिना पर किसी वस्तु का उल्टा तथा वास्तविक प्रतिबिंब बनाता है ।
6. दृष्टिपटल(रेटिना)-
इसे रेटिना भी कहते है । इसमें उपस्थित प्रकाश सुग्राही कोशिकाएँ प्रदीप्त होने पर सक्रिय हो जाती है और विद्युत सिग्नल उत्पन्न करती है । ये सिग्नल दृक तंत्रिका के द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचते है जहाँ इनका संसोधन होता है और उपयुक्त संकेत मिलने पर वस्तु दिखाई देती है ।
⦁ मानव नेत्र द्वारा प्रतिबिंब बनना-


नेत्र के सामने स्थित किसी वस्तु से चलने वाली प्रकाश की किरणें पहले जलीय द्रव ,फिर नेत्र लैंस तथा अन्त में काचाभ द्रव से अपवर्तित होकर रेटिना पर टकराती है । चूंकि मानव नेत्र एक उत्तल लैंस की भांति होता है । अतः रेटिना पर बनने वाला प्रतिबिंब उल्टा तथा वास्तविक होता है । इस प्रतिबिंब का संकेत दृक तंत्रिकाओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचता है और मस्तिष्क इनका संसोधन करता जिससे रेटिना पर बना प्रतिबिंब ,मस्तिष्क द्वारा अनुभव के आधार पर मानव को सीधा दिखाई पड़ता है ।
⦁ नेत्र की समंजन क्षमता(power of accomodation of eye)-
नेत्र की आवश्यकतानुसार ,नेत्र लैंस की फोकस दूरी बदलने की क्षमता को नेत्र की समंजन क्षमता कहते है ।
उम्र के साथ-साथ आँख की समंजन क्षमता घटती जाती है क्योंकि उम्र बढ़ने पर नेत्र की नम्यता (flexibility) कम हो जाती है ।

⦁ आँख का दूर बिंदू(F)-
आँख से अधिकतम दूरी पर स्थित वह बिंदू जिस पर रखी वस्तु को आँख स्पष्ट रूप से देख सके ,आँख का दूर बिंदू कहलाता है । स्वस्थ आँख के लिए यह बिंदू अनंत पर होता है ।
⦁ आँख का निकट बिंदू(N)-
आँख से न्यूनतम दूरी पर स्थित वह बिंदू जिस पर रखी वस्तु को आँख स्पष्ट रूप से देख सके ,आँख का निकट बिंदू कहलाता है । स्वस्थ आँख के लिए यह 25 cm. होता है । इस दूरी को स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहते है ।
⦁ दृष्टि विस्तार-
निकट बिंदू(N) तथा दूर बिंदू(F) के बीच की दूरी को ही दृष्टि विस्तार कहते है । स्वस्थ आँख के लिए यह 25 cm. से अनंत दूरी तक होता है ।
⦁ मोतियाबिंद(Cataract)-
कभी-कभी अधिक आयु के कुछ व्यक्तियों के नेत्र का क्रिस्टलीय लैंस दूधिया या धुँधला हो जाता है ,इस स्थिति को ही मोतियाबिंद कहते है । इसके कारण नेत्र की दृष्टि में कमी या पूर्ण रूप से क्षय हो जाता है । मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा के पश्चात दृष्टि का वापस लौटना संभव है ।
⦁ नेत्र दोष एवं उनके निवारण-
1. निकट दृष्टि दोष(Myopia)-
इस दोष में मनुष्य निकट की वस्तु को तो स्पष्ट देख लेता है परन्तु एक निश्चित बिन्दू के बाद, वह दूर की वस्तु को स्पष्ट नहीं देख पाता है अथवा दिखाई नहीं देती है ।
कारण- इस दोष के निम्न कारण है-
i) नेत्र लैंस की वक्रता बढ़ जाए जिससे उसकी फोकस दूरी कम हो जाती है ।
ii) नेत्र गोलक व्यास बढ़ जाए अथवा नेत्र गोलक लंबा हो जाए जिससे नेत्र लैंस व रेटिना के बीच की दूरी बढ़ जाती है ।
अतः अनन्त से चलने वाली प्रकाश की किरणें इस दोष युक्त नेत्र लैंस से अपवर्तित होकर रेटिना से पहले ही अथवा रेटिना के निकट किसी बिन्दू P पर फोकस हो जाती है अथवा मिलती है ।

इस दोष युक्त नेत्र का दूर बिन्दू (F) अनन्त से खिसकर कम दूरी पर स्थित हो जाता है ।

निवारण-
निकट दृष्टि दोष को दूर करने के लिए ऐसे अवत्तल लैंस युक्त चश्में को आँख के सामने रख देते है जिससे अनन्त से आने वाली प्रकाश किरणें अपवर्तन के पश्चात रेटिना पर फोकस हो जाती है अथवा रेटिना पर मिलती है । जिससे प्रतिबिंब रेटिना पर बनता है ।

2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia)-
दूर दृष्टि दोष मानव नेत्र का वह दोष है जिसमें मनुष्य दूर स्थित वस्तु को तो स्पष्ट देख सकता है परन्तु उसे पास में रखी वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है ।
कारण- इसके निम्न कारण है-
i) नेत्र लैंस की वक्रता कम हो जाए जिससे उसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है ।
ii) नेत्र गोले का व्यास कम हो जाए अथवा नेत्र गोलक छोटा हो जाए जिससे नेत्र लैंस व रेटिना के बीच की दूरी कम हो जाती है ।
अतः निकट बिन्दू से चलने वाली प्रकाश किरणें इस दोष युक्त नेत्र लैंस से अपवर्तित होकर रेटिना के पश्चात किसी बिन्दू S पर मिलती है ।

इस दोष युक्त नेत्र का निकट बिन्दू (N) निकट से हटकर अधिक दूरी पर स्थित हो जाता है ।

निवारण-
दूर दृष्टि दोष को दूर करने के लिए ऐसे उत्तल लैंस युक्त चश्में को आँख के सामने रख देते है जिससे निकट से आने वाली प्रकाश किरणें अपवर्तन के पश्चात रेटिना पर फोकस हो जाती है अथवा रेटिना पर मिलती है । जिससे प्रतिबिंब रेटिना पर बनता है ।

3. जरा दृष्टि दोष-
आयु बढ़ने के साथ-साथ नेत्र की समंजन क्षमता कम हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप आँख का दूर बिन्दू नेत्र के निकट तथा आँख का निकट बिन्दू नेत्र से दूर विस्थापित हो जाता है । इसलिए नेत्र न तो अधिक दूरी वाली वस्तु को और न ही बहुत पास वाली वस्तुओं को स्पष्ट देख पाता है । नेत्र का यह दोष जरा दृष्टि दोष कहलाता है ।
कारण-
जरा दृष्टि दोष का मुख्य कारण आयु बढ़ने के साथ-साथ नेत्र की समंजन क्षमता कम हो जाना है ।
निवारण-
जरा दृष्टि दोष के निवारण के लिए व्यक्ति को द्विफोकस लैंसों से युक्त चश्में का प्रयोग करना पड़ता है । इन लैंसों का ऊपरी भाग अवत्तल लैंस की तरह तथा नीचे का भाग उत्तल लैंस की तरह कार्य करता है ।


 प्रिज्म से प्रकाश का अपवर्तन-

चित्रानुसार ABC काँच का एक प्रिज्म है । इसके तल AB तथा AC पर प्रकाश का अपवर्तन दर्शाया गया है । माना एक प्रकाश किरण चित्रानुसार प्रिज्म के पृष्ठ AB पर कोण i (आपतन कोण) पर आपतित तथा कोण r (अपवर्तन कोण) पर अपवर्तित होती है । यह अपवर्तित किरण पुनः प्रिज्म के पृष्ठ AC पर आपतित होती है तथा कोण e ( निर्गत कोण ) पर पारगमित होती है । आपतित किरण PQ को आगे बढ़ाने पर तथा निर्गत किरण RS को पीछे बढ़ाने पर दोनों G बिन्दू पर मिलती है और इन दोनों किरणों के बीच बना कोण विचलन कोण कहलाता है । इसे से प्रदर्शित करते है ।
इस प्रकाश प्रिज्म से प्रकाश का अपवर्तन होता है ।
⦁ प्रिज्म द्वारा प्रकाश का वर्ण विक्षेपण(परिक्षेपण)-

न्यूटन के अनुसार सूर्य का प्रकाश कई रंगों के प्रकाश से मिलकर बना होता है । जब श्वेत प्रकाश की कोई बारीक किरण पुंज किसी प्रिज्म से होकर गुजारी जाती है तो प्रिज्म के दूसरी ओर रखे सफेद पर्दे पर प्रकाश की एक रंगीन पट्टी दिखाई देती है । इस रंगीन पट्टी को प्रकाश का स्पेक्ट्रम कहते है । इस स्पेक्ट्रम में ऊपरी सिरा लाल तथा निचला सिरा बैंगनी होता है और शेष रंग (नीला, आसमानी , हरा ,जामुनी, पीला) इनके बीच में अविरतता से फैले होते है ।
इस प्रकाश प्रिज्म से होकर श्वेत प्रकाश के गुजरने पर उसका अपने अवयवी रंगों में विभाजित होने की प्रकाशिक घटना को , प्रकाश का वर्ण विक्षेपण कहते है ।
⦁ श्वेत प्रकाश के स्पेक्ट्रम का पुनर्योजन-

चित्रानुसार जब दो प्रिज्मों को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है कि उनके फलक समान्तर हो जाए । जब पहले प्रिज्म से श्वेत प्रकाश गुजरता है तो यह रंगीन स्पेक्ट्रम बनाता है और यदि इस स्पेक्ट्रम को उल्टे रखे प्रिज्म से गुजारते है तो पुनः श्वेत प्रकाश प्राप्त होता है ,इसे ही श्वेत प्रकाश के स्पेक्ट्रम का पुनर्योजन कहते है ।
⦁ इद्रधनुष का बनना-

इंद्रधनुष ,वर्षा के पश्चात आकाश में वर्षा की बूँदों में दिखाई देने वाला प्राकृतिक स्पेक्ट्रम है । जब प्रकाश चित्रानुसार वर्षा की बूँद में प्रवेश करता है तो यह अपवर्तित व विक्षेपित (अलग-अलग रंगों में बंटना ) होता है । अब यह वर्षा की बूँद के आन्तरिक पृष्ठ से टकराता है और इसका आन्तरिक परावर्तन होता है । अब यह वर्षा की बूँद से बाहर निकलते समय पुनः अपवर्तित होता है और प्रेक्षक को इन्द्रधनुष दिखाई देता है । इन्द्र धनुष देखने के लिए पीठ को सूर्य की ओर होना चाहिए ।
⦁ तारों का टिमटिमाना-

जब तारों का प्रकाश पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करता है तो इसका लगातार अपवर्तन होता रहता है ,क्योंकि ऊपरी वायुमण्डल से नीचे पृथवी सतह तक परतों की संघनता अथवा घनत्व बढ़ता जाता है । अतः तारे के प्रकाश का अनेक बार अपवर्तन होने के कारण वह अभिलम्ब की ओर झुकता या मुड़ता जाता है । जिससे तारे की आभासी स्थिति बनती है जो वास्तविक स्थिति से कुछ ऊँचाई पर प्रतीत होती है और क्षितिज से देखने पर तारे टिमटिमाते हुए प्रतीत होते है ।
⦁ अग्रिम सूर्योदय तथा विलंबित सूर्यास्त-

वायुमण्लीय अपवर्तन के कारण सूर्य हमें वास्तविक सूर्योदय से लगभग 2 मिनिट पूर्व दिखाई देने लगता है तथा वास्तविक सूर्यास्त के लगभग 2 मिनिट पश्चात तक दिखाई देता है । वास्तविक सूर्योदय से तात्पर्य सूर्य द्वारा वास्तव में क्षितिज को पार करना है तथा वास्तविक सूर्यास्त का तात्पर्य सूर्य का क्षितिज के नीचे जाना है । वास्तविक सूर्योदय व आभासी सूर्योदय अथवा वास्तिक सूर्यास्त व आभासी सूर्यास्त के बीच का समय अंतराल लगभग दो मिनिट होता है । इस प्रकार दिन की अवधि में 4 मिनिट की वृद्धि हो जाती है । इसी परिघटना के कारण ही सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य की चक्रिका चपटी प्रतीत होती है ।
⦁ प्रकाश का प्रकीर्णन-

जब प्रकाश की किरणें किसी वस्तु से टकराकर अपनी दिशा बदल लेती है परन्तु परावर्तन के नियमों का पालन नहीं करती हैं तो इस प्रकाशिक घटना को प्रकाश का प्रकीर्णन कहते है । टिण्डल नामक वैज्ञानिक ने इसकी खोज की ,इसलिए इसे टिण्डल प्रभाव भी ककहते है ।
⦁ आकाश का रंग नीला होना –

जब सूर्य का श्वेत प्रकाश वायुमण्डल से गुजरता है तो वायु के अणु छोटी की किरणों (जैसे नीली, बैंगनी ) का प्रकीर्णन अधिक मात्रा में करते है जबकी बड़ी वाली लाल रंग की प्रकाश किरणों का प्रकीर्णन कम मात्रा में होता है । अतः प्रकीर्णन के पश्चात नीली व बैंगनी रंग की प्रकाश किरणें पृथ्वी तक अधिक मात्रा में पहुँचती है । जिसके कारण ऊपर का आकाश नीला दिखाई देता है ।
यदि पृथवी के चारों ओर वायुमण्डल नहीं होता तो प्रकीर्णन ना होने के कारण आकाश काला दिखाई देता ।
⦁ उगते व छिपते सूर्य का लाल (रक्ताभ) दिखाई देना –

सूर्योदय व सूर्यास्त के समय प्रकाश की किरणें अधिक दूरी तय करके हमारी आँख तक पहुँचती है । इन किरणों के मार्ग में धूल के कणों तथा वायु अणुओं द्वारा प्रकाश किरणों का अधिक प्रकीर्णन होता है ।
इस प्रकीर्णन के कारण नीली व बैंगनी किरणें निकल (बिखर) जाती है क्योंकि इनका प्रकीर्णन सबसे अधिक होता है । इस प्रकार हमारी आँख तक लाल किरणें ही पहुँच पाती है । फलस्वरूप सूर्य उदय व अस्त होते समय लाल दिखाई देता है ।