पाठ - 13 विद्युत धारा के चुम्बकीय प्रभाव

M.D.M PUBLIC SCHOOL JANI KHURD
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SESSION – 2020 – 2021
CLASS – 10th



SUBJECT – PHYSICS
SUBJECT  TEACHER - RAJ KUMAR SIR

पाठ - 13           विद्युत धारा के चुम्बकीय प्रभाव 

चुम्बक तथा चुम्बकत्व :- एक ऐसा पदार्थ जो लोहे के छोटे - छोटे टुकड़ो को अपनी ओर आकर्षित करता है और जिसकी कोई निश्चित आकृति नहीं होती , चुम्बक कहलाता है | 


किसी चुम्बक द्वारा लोहे के टुकड़ों को अपनी ओर आकर्षित करने के गुण को चुम्बकत्व कहते है | 



चुम्बक के प्रकार - 
चुम्बक मुख्यत: दो प्रकार के होते है - 
(i) प्राकृतिक चुम्बक :- प्रकृति में स्वतन्त्र पाए जाने वाले ऐसे पत्थर या खनिज जिसमे स्वाभाविक रूप से चुम्बक का गुण होता है प्राकृतिक चुम्बक कहलाते है |  जैसे :-  मैग्नेटाइट के पत्थर 



(ii) कृत्रिम चुम्बक :- वे चुम्बक जिन्हे कृत्रिम विधियों द्वारा बनाया जाता है , कृत्रिम चुम्बक कहलाते है | कृत्रिम चुम्बक मुख्यत: लोहे , कोबाल्ट , इस्तपात , आदि धातु के बनाये जाते है | जैसे :- छड़ चुम्बक , नाल चुम्बक , चुम्बकीय सुई , चुम्बकीय नाल आदि | 



इनकी लोहे के टुकड़ो को आकर्षित करने की क्षमता ,प्राकृतिक चुम्बक से अधिक होती है | 

चुम्बक के ध्रुव :- चुम्बक के दोनों सिरों के निकट वे बिंदु जिन पर चुम्बकत्व सबसे अधिक होता है , चुम्बक के ध्रुव कहलाते है | 



चुम्बक के दो ध्रुव होते है - 

(i) उत्तरी ध्रुव  
(ii) दक्षिणी ध्रुव 

चुम्बक के गुण - 

चुम्बक में मुख्यत: निम्न गुण होते हैं:
i. यह चुम्बकीय पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित करता है ।



ii. स्वतंत्रतापूर्वक लटकाने पर चुम्बक सदैव उत्तर-दक्षिण दिशा में ही ठहरता है ।
iii. चुम्बक के अन्दर प्रत्येक सिरे के निकट एक ऐसा बिन्दु पाया जाता है जहाँ चुम्बकत्व सर्वाधिक होता है; इसे चुम्बकीय ध्रुव कहते हैं ।
iv. चुम्बक के दो ध्रुव उत्तरी ध्रुव (North Pole) व दक्षिणी ध्रुव (South Pole) होते हैं ।
v. सजातीय ध्रवों में प्रतिकर्षण तथा विजातीय ध्रुवों में आकर्षण होता है ।
vi. चुम्बक को गर्म करने पर, पीटने पर या घिसने पर उसका चुम्बकत्व नष्ट हो सकता है ।
vii. किसी चुम्बक को बीच में से तोड़ने पर इसके ध्रुव अलग नहीं होते बल्कि टुटा हुआ भाग पुन : पूर्ण चुम्बक बन जाते है | प्रत्येक भाग में उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव बन जाते है | 
viii. अकेले ध्रुव का कोई अस्तित्व नहीं होता है | 

चुम्बकीय क्षेत्र :- चुम्बक के चारो ओर का वह क्षेत्र जिसमे कोई अन्य छड़ चुम्बक या चुम्बकीय पदार्थ चुम्बकीय क्षेत्र का अनुभव करे , चुम्बकीय क्षेत्र कहलाता है | 



चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता :-  किसी चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता उस बल से व्यक्त की जाती है , जो उस स्थान पर चुम्बकीय क्षेत्र के लंबवत स्थित एकांक लम्बाई के तार में एकांक प्रबलता की विद्युत विद्युत धारा प्रवाहित करने पर तार पर कार्य करता है | 
चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता एक सदिश राशि है | इसका मात्रक न्यूटन / एम्पियर - मीटर या वेबर/मीटर2 होता है | 

चुम्बकीय बल रेखाएँ :- किसी चुम्बकीय क्षेत्र में चुम्बकीय बल रेखाएँ वे काल्पनिक रेखाएँ जो उस स्थान में चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को अविरत प्रदर्शन करती है तथा इन रेखाओ के किसी बिंदु पर खींची गयी स्पर्श रेखा उस बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा प्रदर्शित करती है | 


चुम्बक के समीप बल - रेखाएँ चुम्बक के चुम्बकीय क्षेत्र के कारण होता है तथा चुम्बक से दूर बल रेखाएँ पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के कारण होती है | 
चुम्बकीय बल रेखाओं के गुण :-

1 . चुंबकीय बल रेखाएं  सदैव चुम्बक के उत्तरी ध्रुव से निकलती है तथा वक्र बनाती  हुई दक्षिणी ध्रुव में प्रवेश कर जाती है और चुम्बक के अंदर से होती हुई पुनः उत्तरी ध्रुव पर वापस आती है | 
2. दो बल रेखाएं एक दूसरे को कभी नहीं काटती  है यदि वह काटेगी तो दो दिशा प्राप्त होगी जो की संभव नहीं कोई विधुत क्षेत्र रेखा में केवल एक दिशा होती है | 
3. चुम्बक क्षेत्र जहाँ प्रबल होता है , वहाँ बल रेखाएँ पास - पास  होती है| 
4. एक सामान चुंबकीय क्षेत्र की बल रेखाएं परस्पर समान्तर एवं बराबर बराबर दूरिया पर होती है | 
चुंबकीय क्षेत्र में बल रेखाएं ये काल्पनिक रेखा है , जो उस स्थान में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा का सतह प्रदर्शन करती है | चुंबकीय बल रेखाएं के किसी भी बिंदु पर खींचा गया स्पर्श रेखा उस बिंदु पर चुंबकीय क्षेत्र की दिशा को प्रदर्शित करती है|

उदासीन बिन्दु :- चुम्बकीय बल - रेखाओं के बीच दो बिन्दु ऐसे होते है जहाँ से कोई भी बल - रेखा नहीं गुजरती इन बिंदुओं को उदासीन बिन्दु कहते है | 


विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव :- जिस प्रकार किसी चुम्बक के कारण उसके चारों ओर चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है , उसी प्रकार किसी चालक में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर चालक के चार ओर चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है विद्युत धारा के इस प्रभाव को विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव कहते है | 

सीधे धारावाही चालक तार द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र :- जब किसी तार में धारा प्रवाहित की जाती है , तो उसके चारो ओर चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है | उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल-रेखाओं को लोहे के बुरादे या कम्पास-सुई की सहायता से खींच सकते है | 






सीधे धारावाही तार के कारण उत्पन्न बल-रेखाएँ संकेन्द्री वृत्तों के रूप में होती है तथा धारा बढ़ाने से चुम्बकीय क्षेत्र बढ़ जाता है | 

बल-रेखाएँ की दिशा ज्ञात करने के नियम  - 

(1) फ्लेमिंग का दांये हाथ का नियम :- यदि हम दाये हाथ में विद्युत धारा लें जाने वाला तार इस प्रकार पकड़े कि अंगुलिया तार पर लिपटी हो व अंगूठा विद्युत धारा की दिशा में हो तो लिपटी हुई अंगुलियों की दिशा चुम्बकीय बल-रेखाओं की दिशा होगी | 



मैक्सवैल का दक्षिणावर्ती पेंच का नियम :- यदि हम पेंच को कस्ते समय पेंचकस को दांये हाथ में पकड़कर इस प्रकार घुमाए कि पेंच की नोक धारा बहने की दिशा में चले तो जिस दिशा पेंच को घुमाने के लिए अँगूठा घूमता है वही चुम्बकीय बल-रेखाओ की दिशा होगी |




जिस तरह चित्र में दिखाया गया है | चित्र में विद्युत धारा निचे से ऊपर की ओर बह रही है | पेंच को  नोक को ऊपर की ओर चलने के लिए दाहिने हाथ के अंगूठे को बामवर्त दिशा में चलाना पड़ेगा | यही चुम्बकीय बल-रेखाओ को दिशा है | 

धारावाही कुंडली के कारण चुम्बकीय क्षेत्र :- ताँबे के मोटे तार  मोड़कर एक वृत्ताकार कुंडली बनाकर , कुंडली को एक गत्ते के ऊपर चिपके सफ़ेद कागज पर समयोजित कर देते है | 
जब परिपथ में कुंजी लगाकर धारा प्रवाहित की जाती है , तो कुंडली के समीप रखी कम्पास की सुई विक्षेपित हो जाती है | 




इस गत्ते पर कागज पर बल रेखाएँ खींची जा सकती है | 
इस प्रकार उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल-रेखाओं में निम्न विशेषताएँ पाई जाती है -  
(I) कुंडली के तार के किनारों के समीप बल - रेखाएँ वृत्ताकार होती है दुरी बढ़ने पर चुम्बकीय बल-रेखाओ की वक्रता कम हो जाती है | 
(II) कुंडली के केंद्र पर चुम्बकीय बल रेखाएँ समान्तर तथा कुंडली के तल के लंबवत प्राप्त होती है | 
(III) चुम्बकीय बल-रेखाएँ कुण्डली के एक तल से अंदर की ओर जाती है , वह तल दक्षिणी ध्रुव की भांति व्यवहार करता है | 
(IV) कुंडली के तल को सामने से देखने पर , यदि प्रवाहित धारा की दिशा दक्षिणवर्त होती है , तो कुंडली का सामने का तल दक्षिणी ध्रुव की भाँति व्यवहार करता है यदि कुंडली में धारा की दिशा वामावर्त होती है , तो कुंडली का सामने का तल उत्तरी ध्रुव की भाँति व्यवहार करता है | 

धारावाही परिनालिका के कारण उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र :- 

किसी कुचालक बेलनाकार पाइप के ऊपर उसकी लम्बाई के अनुदिश एकसमान रूप से विद्युतरोधी ताँबे के तारों को लपेटकर बनाई गई बहुत अधिक फेरों की कुण्डली परिनालिका कहलाती है | 






यदि इस कुण्डली में किसी सेल के द्वारा विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है , तो यह एक दण्ड चुम्बक की भाँति व्यवहार करने लगती है | 

परिनालिका द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता :- 

यह निम्न बातो पर निर्भर करती है -
(1) परिनालिका की प्रति एकांक लम्बाई में फेरो की संख्या पर निर्भर करती है | यदि परिनालिका में फेरो की संख्या बढ़ाई जाए तो चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता भी बढ़ती है |
(2) धारा की प्रबलता बढ़ने पर भी चुम्बकीय क्षेत्र की प्रबलता बढ़ती है | 
(3) क्रोड़ के पदार्थ पर भी यह निर्भर करती है | 

नोट :- परिनालिका में चुम्बकीय क्षेत्र तब तक रहता है जब तक उसमे धरा प्रवाहित है , यह एक अस्थाई चुम्बकीय क्षेत्र बनती है | 

फ्लेमिंग का बाये हाथ का नियम :- इस नियम के अनुसार , यदि बाएँ हाथ के अंगूठे तथा उसके पास वाली दोनों अंगुलियों को इस प्रकार फैलाया जाये कि तीनों एक दूसरे के लंबवत रहें तब इस स्थिति में यदि पहली अंगुली चुम्बकीय क्षेत्र B की दिशा को तथा बीच वाली अंगुली प्रवाहित धारा I की दिशा को प्रदर्शित करे , तो अंगूठा चालक पर लगने वाले बल की दिशा को प्रदर्शित करेगा |






दाएँ हाथ की हथेली का नियम :- इस नियम के अनुसार , यदि दाएँ हाथ को इस प्रकार फैलाया जाए कि फैली हुई अंगुलिया बाह्य चुम्बकीय क्षेत्र B की दिशा को , अंगूठा धारा की दिशा को प्रदर्शित करे , तो अंगूठा चालक पर लगने वाले बल की दिशा को प्रदर्शित करेगा | 




एकसमान चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित धारावाही चालक पर बल :- माना ( l )
लम्बाई का एक धारावाही चालक तार , एकसमान चुम्बकीय क्षेत्र ( B ) में रखा गया है | चालक तार में (i) धारा प्रवाहित करने पर तार पर बाह्य चुम्बकीय क्षेत्र के कारण एक बल F कार्य करने लगता है | फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियमानुसार , तार पर लगने वाले बल की दिशा धारा तथा चुम्बकीय क्षेत्र के लंबवत होगी | 




तब चालक पर लगने वाला बल 
F  = i L B sinθ

स्थिति (1) :- जब θ = 0 हो तो F = 0 अत: चालक पर कोई बल कार्य नहीं करता है | 

स्थिति (2) :- जब θ = 90 हो तो 

F  = i L B 

अत: चालक पर लगने वाला बल अधिकतम होगा | 

विद्युत मोटर :- विद्युत मोटर एक ऐसी युक्ति है जिसके द्वारा विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में बदल देता है | 

सिद्धांत : - जब किसी कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में रखकर धारा प्रवाहित की जाती है , तो कुंडली पर धारा के काऱण एक बलयुग्म कार्य करने लगता है जिसकी दिशा फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियम के अनुसार निर्धारित की जाती है | यह बलयुग्म कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में लगातार घूमता रहता है | 




  
संरचना :- 
विद्युत मोटर के चार मुख्य भाग होते है - 
(1) क्षेत्र चुम्बक :- यह एक शक्तिशाली स्थाई चुम्बक होता है , जिसके ध्रुव खंड N व S है | 

(2) आर्मेचर :- यह बहुत अधिक फैरो वाली वाली आयताकार कुण्डली होती है जिसे ताँबे के पृथक्कृत तारों की सहायता से कच्चे लोहे के क्रोड़ पर लपेटकर बनाया जाता है | यह चुम्बक के ध्रुव के बीच घूमती रहती है | 

(3)  विभक्त वलय :- ये दो अर्धवृत्ताकार खंडो में विभक्त एक वलय के रूप में होते है | आर्मेचर के सिरे चित्रानुसार इन दो अलग अलग वलयो में जुड़े रहते है | 

(4) ब्रुश :-  ये कार्बन धातु की बनी दो पत्तियाँ होती है जिन्हे विभक्त वलय स्पर्श करते है | इन ब्रुशों का सम्बन्ध दो संयोजक पेंचो से करके इनके बीच एक बैटरी लगा देते है | एक ब्रुश से विद्युत धरा कुण्डली में प्रवेश करती है तथा दूसरे दूसरे ब्रुश से बहार निकल जाती है | 

क्रियाविधि :-   जब बैटरी से कुण्डली में धारा प्रवाहित करते है , तो फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियमानुसार कुण्डली की भुजाओ पर बराबर परन्तु विपरीत दिशा में दो बल कार्य करते है | ये दोनों बल एक बल युग्म बनाते है जिसके कारण कुण्डली वामावर्त दिशा में घूमने लगती है | साथ ही इसमें लगे विभक्त वलय भी घूमने लगते है | इन विभक्त वलय की सहायता से कुण्डली का घूर्णन एक ही दिशा में रखा जाता है |


उपयोग :- विद्युत मोटर का उपयोग बिजली उपकरण , जल पम्प , आटा चक्की , बड़ी बड़ी मशीने , विद्युत पंखे , आदि में किया जाता है |  


चुम्बकीय क्षेत्र में गतिमान आवेश पर बल : ( लारेंज बल ) :- जब कोई आवेशित कण किसी चुम्बकीय क्षेत्र में गति करता है , तो कण पर एक बल आरोपित होता है | इस बल को लारेंज बल कहते है | 

इस बल की दिशा , चुम्बकीय क्षेत्र तथा कण की गति की दिशा दोनों के लंबवत होती है | 
माना एक कण जिस पर +q आवेश , चुम्बकीय क्षेत्र B में क्षेत्र की दिशा के लंबवत v वेग से गतिशील है , तो इस कण पर लैंज बल 

F  =  q v B  

यदि आवेशित कण की गति की दिशा चुम्बकीय क्षेत्र B की दिशा के लंबवत न होकर उससे θ कोण बना रही हो , तो कण पर कार्यरत बल 

 =  q v B sinθ 


स्थिति (I) 
यदि θ = 0 अंश हो तो 

 =  q v B sin 0 

 =  0  
स्थिति (II) 
यदि θ = 90 अंश हो तो 
 =  q v B sin 90
 =  q v B 

स्थिति (III) 
यदि v = 0 हो तो 
 =  q *0* B sin θ
 =  0 


चुम्बकीय फलक्स :- चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित किसी तल के लंबवत के लंबवत गुजरने वाली सम्पूर्ण बल रेखाओ की संख्या को ही उस तल का चुम्बकीय फलक्स कहते है | इसे Φ से प्रदर्शित करते है | 

यदि A क्षेत्रफल का कोई तल , B प्रबलता के चुम्बकीय क्षेत्र में उसके लंबवत रखा हो तो 

Φ  = B A 


यदि पृष्ठ चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत नहीं है तथा पृष्ठ पर खींचा गया लम्ब चुम्बकीय क्षेत्र B के साथ θ कोण बनाता है , 
तब 
Φ  = B A cos θ 

यदि कुण्डली में N फेरे हो तो चुम्बकीय फलक्स 
Φ  = N B A cos θ 

(1) स्थिति :- यदि θ = 0 अंश हो तो 

Φ  = B A cos 0 

Φ  =     B A x 1 

Φ  =          B A  ( अधिकतम )

अर्थात इस स्थिति में पृष्ठ चुम्बकीय क्षेत्र के लम्बवत स्थित होता है | 

(2) स्थिति :- यदि θ = 90 अंश हो तो 

Φ     =   B A cos 90 

Φ  =    B A x 0 

Φ   =          0  


अर्थात इस स्थिति में पृष्ठ चुम्बकीय क्षेत्र के समान्तर स्थिति होता है | 

विद्युत चुम्बकीय प्रेरण :- जब किसी बंद परिपथ से सम्बंधित चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है , तो परिपथ में एक विद्युत वाहक बल प्रेरित हो जाता है जिसके कारण परिपथ में धारा बहने लगती है | यह धारा तब तक बहती है जब चुम्बकीय फलक्स में परिवर्तन होता है इस घटना को विद्युत चुम्बकीय प्ररेण कहते है तथा उत्पन्न विद्युत वहक बल को प्रेरित विद्युत वाहक बल कहते है इस बल के कारण उत्पन धारा को प्रेरित धारा कहते है | 





फैराडे का प्रयोग :- इसके लिए एक ताँबे के तार की एक कुण्डली तथा एक दंड चुम्बक लेते है | चुम्बक के  उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव क्रमशः N व S है | कुंडली के सिरों को एक सुग्राही धारामापी G के साथ जोड़ देते है | दण्ड चुम्बक को कुण्डली के अक्ष के अनुदिश रखते है | 






जब किसी कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फलक्स में परिवर्तन किया जाता है तो उस कुण्डली में विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है जिसके कारण कुण्डली में विद्युत धारा उतन्न हो जाती है | 

यह धारा तब तक विध्यमान रहती है जब तक 
(1) कुण्डली स्थिर हो और चुम्बक गतिमान हो | 
(2) कुण्डली गतिमान हो और चुम्बक स्थिर हो | 


फैराडे के विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के नियम :- 

फैराडे ने प्रयोगों के आधार पर विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के दो महत्त्व पूर्ण नियम दिए - 

प्रथम नियम :- जब किसी कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फलक्स में परिवर्तन किया जाता है , तो कुंडली में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है | यदि परिपथ बंद हो , तो कुण्डली में एक विद्युत धारा प्रवाहित हो जाती है | इस नियम को न्यूमैन का नियम भी कहते है | 

प्रेरित विद्युत वाहक का परिमाण चुम्बकीय फलक्स परिवर्तन की ऋणात्मक दर के बराबर होता है | 
यदि Δt समय में चुम्बकीय फलक्स में परिवर्तन ΔΦ हो , तो प्रेरित विद्युत वाहक बल 



e = - ΔΦ / Δt

यदि कुण्डली में फेरों की संख्या N हो तब 

e = - N ΔΦ / Δt


द्वितीय नियम :- विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की प्रत्येक दशा में प्रेरित विद्युत वाहक बल व प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार होती है कि वह उस कारण का विरोध करे जिससे वह स्वम उत्पन्न हुई है | इस नियम को लेन्ज का नियम भी कहते है | 

प्रेरित धरा की दिशा का निर्धारण - 

फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम :- इस नियम के अनुसार ' यदि हम दाएँ हाथ का अंगूठा और उसके पास वाली अंगुली तथा उनके बीच वाली अंगुली तीनो को एक दूसरे के साथ लंबवत विस्तृत फैलाएँ , तो  इस स्थिति में अँगूठा चालक की गति को प्रदर्शित करेगा , अँगूठे के पास वाली अँगुली चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को प्रदर्शित करेगी तथा बीच वाली अँगुली चालक  प्रेरित धारा की दिशा  दर्शायेगी | 





नोट :- फ्लेमिंग के बाएँ का नियम वास्तविक धाराओं के लिए तथा दाएँ हाथ का नियम प्रेरित धाराओं के लिए प्रयोग किया जाता है | 


विद्युत जनित्र अथवा डायनमो :- 

वह यन्त्र जो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदल देता है , विद्युत जनित्र ( डायनमो ) कहलाता है | यह विद्युत चुम्बकीय प्ररेण के सिद्धांत पर आधारित है | 
विद्युत जनित्र के प्रकार :- 
(1) प्रत्यावर्ती धारा जनित्र ( Alternating Current or AC Generator )
(2) दिष्ट धारा जनित्र  ( Direct Current or DC Generator )


प्रत्यावर्ती धारा जनित्र ( Alternating Current or AC Generator ) :-

सिद्धांत :- विद्युत जनित्र विद्युत चुंबकीय प्ररेण के सिद्धांत पर कार्य करता है | जब किसी चालक से बद्ध चुम्बकीय फलक्स में परिवर्तन होता है , तो उसमे विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है यदि कुण्डली बंद है कुण्डली में प्रेरित धारा प्रवाहित होने लगती है 
संरचना :- प्रत्यावर्ती धारा जनित्र के निम्नलिखित भाग होते है - 
(1) क्षेत्र चुम्बक :- यह एक शक्तिशाली स्थाई चुम्बक होता है , जिसके ध्रुव खंड N व S है | 

(2) आर्मेचर :- यह बहुत अधिक फैरो वाली वाली आयताकार कुण्डली होती है जिसे ताँबे के पृथक्कृत तारों की सहायता से कच्चे लोहे के क्रोड़ पर लपेटकर बनाया जाता है | यह चुम्बक के ध्रुव के बीच घूमती रहती है | 

(3) सर्पीवलय :- कुण्डली के सिरे दो अलग - अलग धातु के वलयों C1 व C2 से जोड़े देते है | वलय सम - अक्षीय होते है तथा कुण्डली के साथ साथ घूमते है | 

(4) ब्रश :- ये कार्बन या किसी धातु की पत्तियों से बनें दो ब्रश ( B1 व B2 ) होते है |  इनका एक - एक सिरा , दो वलयों को स्पर्श करता है , तथा शेष दूसरा सिरों को बाहरी परिपथ से जोड़ता है | ये ब्रश कुण्डली के साथ नहीं घूमते | 





कार्यविधि :- माना प्रारम्भ में कुण्डली ABCD का तल चुम्बकीय क्षेत्र के लंबवत है | कुण्डली का सिरा A सर्पवलय C1 से तथा D सर्पवलय C2 से जुड़ा है | ब्रुश B1 वलय C1 को तथा ब्रुश B2 वलय C2 को स्पर्श करता है | 

यदि कुण्डली दक्षिणा वर्त दिशा में घुमाई जा रही है , तो फ्लेमिंग के दाए के नियम से कुण्डली में प्रेरित धारा ABCD दिशा में प्रवाहित होगी |  

कुंडली का आधा चक्कर पूरा होने के बाद भुजा AB व CD अपनी - अपनी स्थिति बदल लेते है | सर्पीवलय C1 व C2 भी अपने स्थान पर घूम जाते है | परन्तु ब्रुश B1 का सम्बन्ध सर्पीवलय C1 से तथा B2 का सम्बन्ध सर्पी वलय C2 से ही बना रहता है |   
पहले आधे चक्कर में धारा एक दिशा मे व दूसरे आधे चक्कर में धारा दूसरी दिशा में प्रवाहित होती है |  अत: बाह्य परिपथ में प्राप्त धारा 

प्रत्यावर्ती धारा होती है | क्योंकि इसकी दिशा लगातार बदलती रहती है | प्रत्यावर्ती धारा की आवर्ती , कुण्डली के घूमने की आवर्ती के बराबर होती है | 

दिष्ट धारा जनित्र ( Direct Current Generator ) :- 

सिद्धांत :- यह प्रत्यावर्ती धारा जनित्र की तरह ही होता है अंतर केवल इतना होता है कि  इसमें सर्पी वलय के स्थान पर विभक्त वलय होते है | दिष्ट धारा जनित्र में भी जब कोई कुण्डली या आर्मेचर शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र में घूर्णन करती है , तो उसमे विद्युत चुम्बकीय प्ररेण के सिद्धांत के अनुसार प्रेरित विद्युत धारा उत्त्पन्न होती है | 

संरचना :- दिष्ट धारा जनित्र के निम्न भाग होते है - 


(1) क्षेत्र चुम्बक :- यह एक शक्तिशाली स्थाई चुम्बक होता है , जिसके ध्रुव खंड N व S है | 

(2) आर्मेचर :- यह बहुत अधिक फैरो वाली वाली आयताकार कुण्डली होती है जिसे ताँबे के पृथक्कृत तारों की सहायता से कच्चे लोहे के क्रोड़ पर लपेटकर बनाया जाता है | यह चुम्बक के ध्रुव के बीच घूमती रहती है | 

(3)  विभक्त वलय :- ये दो अर्धवृत्ताकार खंडो में विभक्त एक वलय के रूप में होते है | आर्मेचर के सिरे चित्रानुसार इन दो अलग अलग वलयो में जुड़े रहते है | 

(4) ब्रुश :-  ये कार्बन धातु की बनी दो पत्तियाँ होती है जिन्हे विभक्त वलय स्पर्श करते है | बाहरी परिपथ में धारा ब्रुशों B1 व B2 की सहायता से ही प्रवाहित होती है | ये विभक्त वलय को स्पर्श करते है तथा अपने स्थान से विस्थापित होते रहते है | 

कार्यविधि :- जब आर्मेचर चुम्बकीय धुर्वों के बीच दक्षिणावर्ती दिशा में घूर्णन करता है , तो आर्मेचर से बद्ध चुम्बकीय फलक्स में परिवर्तन होता है तो कुण्डली में एक प्रेरित विद्युत वाहक बल व प्रेरित धारा प्रवाहित होने लगती है | आर्मेचर के पहले आधे चक्कर में आर्मेचर कुंडली में प्रेरित विद्युत वाहक बल का मान शुन्य से बढ़कर अधिकतम हो जाता है तथा पुन : शुन्य हो जाता है | 
दूसरे आधे चक्कर में भी इसी तरह से होता रहता है | अत: बाह्य परिपथ में धारा निरन्तर एक ही दिशा में प्रवाहित होती रहती है अर्थात प्राप्त धारा दिष्ट होती है | 


                   


 आर्मेचर के पहले आधे चक्कर में आर्मेचर कुंडली में प्रेरित विद्युत वाहक बल का मान शुन्य से बढ़कर अधिकतम हो जाता है तथा पुन : शुन्य हो जाता है | 
दूसरे आधे चक्कर में भी इसी तरह से होता रहता है | अत: बाह्य परिपथ में धारा निरन्तर एक ही दिशा में प्रवाहित होती रहती है अर्थात प्राप्त धारा दिष्ट होती है |

दिष्ट धारा :- वह विधुत धारा जिसका परिमाण निश्चित रहता है तथा परिपथ के किसी भी बिंदु पर एक ही दिशा में प्रवाहित होती है , दिष्ट धारा कहलाती है | 

प्रत्यावर्ती धारा :- वह विद्युत धारा जिसका परिमाण व दिशा आवर्त रूप रूप से बदलता रहता है प्रत्यावर्ती धारा कहलाती है | 

दिष्ट धारा व प्रत्यावर्ती धारा में अंतर 

 दिष्ट धारा 
 प्रत्यावर्ती धारा 
 (i) दिष्ट धारा का परिमाप व दिशा समय के साथ नियत रहता है | 
(i) प्रत्यावर्ती धारा का परिमाप आवर्त रूप में बदलता रहता है तथा समय धारा के मध्य आरेख ज्या वक्र प्राप्त होता है |  
(ii) दिष्ट धरा को बैट्ररी सैल में प्राथमिक व संचायक सेल से प्राप्त करते है | 

(ii) यह विद्युत जनित्र अथवा प्रत्यावर्ती डायनमो से प्राप्त होती है | 

 (iii) घरो में टॉर्च व अन्य उपकरणों में इसका उपयोग किया जाता है | 
(iii) घरो तथा कारखानों में इसका उपयोग किया जाता है | 




कार्य अभी बाकि 
है। ......